मानव शरीर
——–स्वस्थ जीवन का रहस्य -1———
——मानव शरीर——–
[देव दुर्लभ मानव-शरीर को स्वस्थ रखे बिना प्राणी अपने लक्ष्यतक पहुँच नहीं पाता। कर्म, ज्ञान, भक्ति, उपासना और चतुर्विध पुरुषार्थ के समुचित साधन स्वस्थ जीवन में ही सम्भव हो सकते हैं। आजकल शारीरिक तथा मानसिक भोग-विलासके प्रसाधनोंकी इतनी विपुलता हो गयी है कि सामान्य मानव मानसिक शान्ति और शारीरिक स्वास्थ्यसे दिनों-दिन विमुख एवं वञ्चित होता जा रहा है। जीवन अति व्यस्तता, विलासिता या इन्द्रिय-लोलुपताके कारण मानसिक तनाव तथा शारीरिक कष्ट (गलत रहन सहनका कुप्रभाव) बढ़ता जा रहा है। मानव के सहज स्वाभाविक गुण-प्रेम, सहानुभूति, सेवा तथा सद्व्यवहार आदि तीव्र गतिसे समाप्त होते जा रहे हैं और इनके स्थानपर घृणा, भव, ईष्या, राग-द्वेष आदि तेजीसे बढ़ते चले जा रहे हैं। इन परिस्थितियों में याचन-तन्त्र के रोगों की उत्पत्ति होती है, जो सब प्रकारके रोगों के कारण हैं। गम्भीरतासे विचार करनेपर यह ज्ञात होगा कि अन्तर्मनमें व्याप्त भय, इया, क्रोध, घृणा, राग-द्वेषके भीतर ही समस्त रोगोंका बीज या अंकुर विद्यमान है। आजकल लोग स्वस्थ तो रहना चाहते हैं, पर इसके लिये डॉक्टरी दवाओंका प्रयोग अधिक करनेके परिणामस्वरूप उपस्थित
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रोगके दब जानेपर भी अन्य कई रोगों के बीज का सूत्रपात शरीर में हो जानेसे निरन्तर कष्टमें पड़े रहते हैं। सामान्यतः व्यक्ति छोटी मोटी बीमारियोंसे परेशान रहते हैं और उनके लिये उन्हें बार-बार चिकित्सकोंकी शरण लेनी पड़ती है। वास्तवमें खान-पान, आहार-विहार एवं रहन-सहन की अनियमितता तथा असंयमके कारण ही रोग और व्याधियोंका प्रादुर्भाव होता है। संयमित और नियमित जीवन से प्राणी रोग मुक्त हो जाता है। प्रकृति के कुछ सरल और स्वाभाविक नियम हैं, जिनके अनुपालनका ध्यान रखनेपर व्यक्ति प्रायः स्वस्थ नहीं होते। यदि किसी कारणवश कोई बीमारी हो जाती है तो बिना औषध-सेवन किये वे प्राकृतिक नियमों के पालनसे स्वस्थ हो सकते हैं।
प्राचीन कालसे भारतीय परम्परामें संयमित आहार-विहार से युक्त नियमपूर्वक जीवनयापन ही स्वस्थ जीवनका सर्वोत्तम उपाय माना जाता है। इस दृष्टि से सर्वसाधारणके लिये उपयोगी स्वस्थ जीवन के कुछ मूलभूत सिद्धान्त एवं सूत्र यहाँ प्रस्तुत हैं।] लगातार……